सुषमा मौसी




।। ॐ ।।

प्रिय ऊषा बहन जी

दैव ने प्रेम से बनाया था तुमको,
फिर भी उसे लगा जैसे कमी कोई रह गई है।
साल भर सोचने विचारने के बाद,
रच कर मुझे उसने भेज दिया जगत में।
एक साथ खेले हम पढे और हुए बडे,
एक दुसरे से लगाव भी बहुत था।
स्वभाव की तुम शान्त थी, मै बडी चंचल चपल,
तुम थी अनुशासन बंधी, मै निरंकुश निश फिकर,
तुम न लडती न लगडती, न किसी से तर्क करती,
न ही सखियो को बुलाती, न किसी के घर ही जाती,
मगर मैं विपरीत थी।
गलत बातें को न सहती, सहेलियें से घिरी रहती
नकल करती और चिढाती, खुद भी हॅँसती और हॅँसाती
स्वभाव था उल्टा मगर हम चाहते थे साथ रहना,
विधी की बरसी कृपा तुम भी आ बसी मुम्बई में।
लगा बचपन लौट आया।
आज तुज हो पचहत्तर मैं चौहत्तर की हुई
बडी बूढी बनकर हम तुम घिरे हैं परिवार से ।
फिर भी जब मिलते हम दोनें बीता बचपन लौट आया
ऊषा की सुषमा का सौरभ, खिलखिलाता मुस्कुराता ।
सुषमा मौसी

 

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